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राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे यानी नैतिक मानदंडों के आदर्श। अयोध्या में उनके जन्म-स्थली पर मंदिर को लेकर करीब 500 साल विवाद रहा, कोर्ट में मामला चला, कई संगठनों के सहारे हिन्दुओं के मानस को उद्वेलित करते हुए एक राजनीतिक दल सत्ता में आया और तब सुप्रीम कोर्ट से तय हुआ कि मंदिर बनेगा। अकूत चंदा देश-विदेश से आया। मंदिर का काम शुरू हुआ। लेकिन राममंदिर-निर्माण भी विवाद से नहीं बच पाया। कुछ दिन पहले खबर थी कि चंदे की रकम में किसी व्यक्ति ने हेराफरी की और अब मंदिर के लिये ली जाने वाली जमीन को लेकर आरोप। प्रश्न यह नहीं कि गड़बड़ी हुई या नहीं। राम भक्तों के वोट से सत्ता तक पहुँचने वालों को इतना तो सुनिश्चित करना ही था कि मंदिर निर्माण हर किस्म के विवाद से परे रहे क्योंकि राम 100 करोड़ हिन्दुओं के आराध्य देव हैं और साथ हीं मर्यादा पुरुषोत्तम भी।
डायन भी एक घर छोड़ देती है पर हम...!
क्या वजह है कि सभी स्थानीय छोटे बड़े अफसरों ने पिछले एक साल में इस क्षेत्र में हजारों एकड़ जमीन खरीद और उसे मात्र कुछ दिनों में हीं अनाप-शनाप कीमत में मंदिर निर्माताओं को बेंच दी। यहाँ तक एक स्थानीय स्टेशन मास्टर के बेटे ने भी करोड़ों का वारा-न्यारा इस धंधे में किया। शायद भगवान राम को पता भी न हो कि उनका नाम अच्छी राजनीतिक शक्ति ही नहीं अच्छे कमाई भी दे रहा है। मसला है कि डायन भी एक घर छोड़ देती है पर हम भारतीय किसी को छोड़ने में विश्वास नहीं करते।
आपदा में सभी ने नैतिकता के मापदंड तोड़े
अब भारतीय समाज का एक और पहलू देखें। अपराध-न्यायशास्त्र की सर्वमान्य अवधारणा है कि मृत्यु को आसन्न देख कर मानव सच बोलता है क्योंकि उस समय वह राग-द्वेष से मुक्त हो चुका होता है। कोरोना ने पिछले डेढ़ साल से दुनिया के अस्तित्व को चुनौती दे रखी है। राजा से लेकर रंक तक कोई नहीं बचा है अगर बचा भी तो उसके आँख के सामने उसका सगा जाता रहा। ऐसे में लगा कि हर व्यक्ति जीवन की नश्वरता की हकीकत सामने देखते हुए नैतिक आचरण करेगा। पर हुआ इसके उलट। इसी दौरान शासन में बैठे लोग मरीजों के, कोरोना से हुई मौतों के और अब टीकाकरण के फर्जी आंकड़ें देते रहे। जरा सोचें उस अस्पताल कर्मचारी की मानसिकता के बारे में जो टीके न लगता हो और फर्जी आंकड़े भरकर कागज में खानापूर्ति करता हो या जो ऑक्सीजन के लिए मछली की तरह तड़पते मरीज से नली हटाकर किसी और मरीज को इसलिए देता हो कि उसके परिजनों ने ज्यादा पैसे दिए हैं। उस आईएएस कलेक्टर के बारे में सोचें जो मरीजों के आंकड़े कम दिखाकर मुख्यमंत्री को खुश करता हो या जो मंत्री के रिश्तेदार को दवा और बेड उपलब्ध कराता हो जबकि एक सामान्य व्यक्ति उन्हीं सुविधाओं को अभाव में अस्पताल के गेट पर दम तोड़ रहा हो और उसकी पत्नी की चीखें उस अधिकारी के कानों तक पहुँच रही हों। अस्पताल में असहाय कोरोना मरीज से बलात्कार किया जा रहा हो। शायद पशु से तुलना करना जानवर की गरिमा गिराना होगा। सत्ता में बैठा नेता हो या अफसर सभी नैतिकता के हर मानदंड तोड़ चुके थे। उधर अस्पतालकर्मी लाश उठाने के पैसे लेते रहे, तो शमशान पर लाश का मुंह दिखाने या नदी में लाश बहाने के लिए लिए ठेकेदार के आदमी। यानी मरने पर भी चैन नहीं।अगर आसन्न मौत भी उसे नहीं डरा सकती तो कैसे समाज में मूल्यों पर टिकने की ताकत आयेगी? और समाज नैतिक नहीं होगा तो शासनतंत्र से ईमानदारी की प्रतिमूर्ति बनाने की अपेक्षा क्यों? क्या जनता के वोट में इतनी भी ताकत नहीं है कि कुछ नैतिकरूप से मजबूत लोगों की जमात चुन कर एक स्वच्छ और विवाद-शून्य शासन दे सके?
वोट की पहली शर्त ईमानदार शासन क्यों नहीं ?
तमाम अध्ययनों से पता चला कि इस देश का हर वयस्क नागरिक एक या अनेक बार अपने काम के लिए सरकार के लोगों या ठेकेदारों को घूस दे चुका है। अव्वल तो घूस का दबाव मिलते ही वह और उस जैसे सभी लोग (याने पूरा देश) सिस्टम के खिलाफ क्यों नहीं उठ खड़े होते और अगर पहली दफे घूस दे देते हैं तो पूरी जिन्दगी इसी भाव में क्यों रहते हैं? अगर सभी मतदाता इस दंश के शिकार हैं तो पांच साल में जब मतदान का मौक़ा आता है तो ईमानदार शासन को वोट की पहली शर्त क्यों नहीं बनाते ताकि सरकारों का एक ही ध्येय रहे शासन को भ्रष्टाचार-शून्य सुशासन में तब्दील करना। फिर चुनाव होगा, जाति और धर्म की आधार पर टिकट बटेंगें, वैचारिक दुश्मनों से पार्टियां समझौते करेंगीं और हम फिर उनमें उलझकर अपनी ही नैतिकता का चीर-हरण करते रहेंगें राम-मंदिर की दीवारें ऊँची करते हुए।
विरोध के प्रति सत्ता का जीरो- टॉलरेंस
अजीब विरोधाभास है। प्रजातंत्र में सरकारें सत्ता हासिल करने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी के सभी साधन इस्तेमाल करके वोट हासिल करती हैं और तब तक सब कुछ सही रहता है लेकिन शपथ लेने के बाद जब उसी आजादी के संविधान प्रदत्त अधिकार का इस्तेमाल इसकी बुराई के लिए किया जाता है तो उसे सत्ताधारी पसंद नहीं करता और “देशद्रोह” बताकर उसे जेल में ठूंस देता है। इसी सोशल मीडिया का प्रयोग कर सत्ता पक्ष ने देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता को हर उस ब्रश से रंगा जिससे उनकी इमेज एक मूर्ख, अज्ञानी, अविवेकी और अपरिपक्व बड़े परिवार के युवा की बने लेकिन वह वैध बताया गया लेकिन जब उसी युवा नेता के ट्वीट्स पर अमरीका, यूरोपियन यूनियन और ब्रिटेन की संसद ने सरकार को लताड़ा और दुनिया की मकबूल हस्तियों ने सरकार की कदमों और नीतियों की निंदा की तो उसे “टूलकिट” षड्यंत्र बताया गया यानी “भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय साजिश”। वर्तमान सरकार के तीर का यह एक अजीब तरकश है जिसमें सरकार और राष्ट्र सह-सीमावर्ती (सीओ-टर्मिनस) हो जाते हैं और तब सरकार की नीति, अकर्मण्यता या पक्षपाती व्यवहार की बुराई को राष्ट्र के प्रति “अप्रीति” माना जाता है और ऐसा करने वालों को एनएसए या यूएपीए जैसी क्रूर कानूनों में महीनों और वर्षों निरुद्ध कर दिया जाता है।
अपने को जल्द बदलें
कोरोना, लगातार बदलते और ज्यादा संक्रामक होते वायरस वैरिएंट्स के बाद एक बात साफ हो गई है। मानव सभ्यता और विकास के तीन हजार साल के इतिहास का कितना भी दम हम भर लें, ध्वनि से तेज चल कर या चाँद पर पर्यटन विकसित करके, लेकिन एक अदृश्य अर्ध-जीव हमारे अस्तित्व को चुनौती दे सकता है। और फिलहाल यह तो अपना रूप तेजी से बदल सकता है क्या हम हर बदले वैरिएंट का उपचार उसी रफ्तार से तलाश पाएंगे या इसे हमेशा के लिए खत्म कर पाएंगे?कहीं हमारे अनैतिक आचरण, लोलुपता और लम्पटता का प्रकृति प्रतिकार तो नहीं ले रही है? अगर ऐसा है तो जल्द अपने को बदलें।
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